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पराजय / महेन्द्र भटनागर

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मिल रही है हार !

मनुज का व्यवहार क्या,
सभ्यता विस्तार क्या,
स्वार्थ की दुर्भावना से मिट रहा संसार !

ज्वार-पूरित पूर्ण सागर,
और नौका क्षीण जर्जर,
है बड़ा पागल मनुज जो तोड़ता पतवार !

खींचता प्रतिपल प्रलोभन,
मिट रहा है मुक्त-जीवन,
कह रहा, पर, छल भरे स्वर, ‘आज नवयुग द्वार !’
मिल रही है हार !
1945