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कौन प्रवीण / सुरंगमा यादव

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34
नारी विमर्श
पाये सही उत्कर्ष
रूढ़ियाँ तोड़ो।
35
रत्ना का ज्ञान
तुलसी बन गये
रत्न समान।
36
कैसे हालात !
बाला,वृद्धा-बच्चियाँ
झेलें संताप।
37
अग्निपरीक्षा
फिर भी परित्यक्ता
बनी है सीता।
38
मन पिटारी
दर्द के मोती रखे
छिपा के नारी।
39
थे धर्मराज
दाँव पर लगा दी
पत्नी की लाज।
40
विधि ने रचा
फिर जग ने गढ़ा
रूप नारी का।
41
तुम्हारा साथ
खिली धूप भी लगी
चाँदनी रात।
42
शब्द न मिलें
मन कितना कुछ
कहना चाहे।
43
मन-आँगन
स्वप्नों की थिरकन
यही जीवन।
44
कौन प्रवीण
बजाता जो सबकी
साँसों की बीन