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लीसा / गीता त्रिपाठी / सुमन पोखरेल

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एक रोज
पुछा था लीसा ने मुझ से -
“बापू बडे हैं या माँ?”
उसके चेहरे पे उठे भावों को पढे बगैरह ही
बेफिक्र कह दिया मैने - दोनों।

मेरा इसी वचन पे
उसका विश्वास टिका हुवा था -
आएगें किसी रोज
कबुतरे की जोडी की तरह
उस से मिलने - दोनों।

“जिन्दगी धूप-छाँह है”- मैंने उस को पढाया।

बेहद गर्मी के एक दिन
शीतल छाँव का इन्तजार करती लीसा
मरूस्थल की तपिश में तपती रही
केवल सूरज को ले आया उस के बापू के संंग
शीतल छाँव न था।

सर्दी के किसी दुसरे दिन
गरम धूप का इन्तजार कर रही लीसा
शीतलहर के ठंड में ठिठुरती रही
केवल छाँव को ले आयी उस की माँ के पास
गरम धूप न था।

सही जवाफ ना पाई हुई वह
अब भी मुझे
प्रश्नोभरी आँखों से देखती है।

मुझे डर लगता है
कहीँ वह
मुझ पे भी शक करने न लगे।

क्योंकि
मैं
अब भी उस की टीचर हूँ।
०००

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