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मेरा गांव / अमित कुमार मल्ल

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मेरे गाँव में
पहाड़ नहीं है
झरने नहीं है
हर तरफ़ हरियाली नहीं है

लेकिन
मिस करता हूँ
अपने गाँव को

वहाँ के
खेत
खलिहान
दुआर को
जहाँ मैंने वक़्त गुज़ारा

खेतों में
धान की रोपाई
रोपाई के समय
गाए जाने वाले गीतों को

गेहूँ की बुवाई
दवाई
तथा
डेहरी में भरने पर
होने वाली ख़ुशी को

वहाँ के बांगर
कछार
देवार को जो
जीवन की
कई ज़रूरतों को पूरी करते थे

गड़ही
पोखरा
पोखरी
ताल और
उसके सिंघाड़े को

राप्ती नदी
उसको पार कराने वाली
डोंगी को
नाव को

वहाँ के
गुल्ली डंडा
कबड्डी
चिक्का को
जिसको खेलता था
लेकिन जीत नहीं पाता था

दुआर के कोने में
रोज़ शाम
लाल लंगोट पहन कर
तेल लगाकर
दंड बैठक कर करने
धोबिया पाट सीखने को
कान तुड़ान की इच्छा को

कंचा
गोली
ठिकल्ला
गुच्ची के खेल को
जो सीख नहीं पाया

वहाँ की
फुलवारी
बारी
नौरंगा
नवरंगी
बगीचा को
जहाँ गर्मी की
दोपहरी गुजरती थी

वहाँ की
ताजिया
रामलीला
नाग पंचमी को
नाग पंचमी में
मंदिर के पोखरे के किनारे
अखाड़े में
चैलेंज कुश्ती को

वहाँ के
दशहरा के दिन
नीलकंठ को ढूँढ कर देखने
पड़ोसियों पट्टीदारों के घर जाकर
प्रणाम करने को
साथ गाँव घूमने को

होली के पूर्व रात को
होलिका दहन के समय
उतरल बुकवा को
होलिका दहन में डालते हुए
कबीरा गाने को

होली के दिन
कीचड़
राख
मिट्टी
रंगो
अबीर की होली को

होली के दिन
घर-घर घूमकर
ढोलक झाल बजाकर
फ़गुआ गाने
पान खाने को

प्राइमरी पाठशाला
और उसके
मौलवी साहब
बाबू साहब
पंडित जी को
जो कम पैसों में पढ़ाते थे
पूरे मनोयोग से
पूरी निष्ठा से

वहाँ का बस्ता
नरकट की कलम
निब वाली पेन
रोशनाई
पटिया को

पांचवीं की बोर्ड परीक्षा को
एक्स्ट्रा क्लासेस के बीच
भंटा के चौखे को
केले के तनों में जोड़ कर
उसके आसरे
राप्ती नदी में सन बाथ लेने को

बैलगाड़ी
एक्का
टांगा को
जिनसे
पास के कस्बे तक आ जाते थे

गोईठा कि
धीमी धीमी आंच की
लिट्टी
चोखा को

दाल
भात
रोटी
तरकारी को

हाबूस
होरहा
भूने आलू और
मकई के भुजे को

कोल्हुआने के
रस को
ताज़ा गिले
गुड़ को

दिवाली के बाद
कार्तिक पूर्णिमा को
आंवले के पेड़ के नीचे
खाने को

दिसम्बर के जाड़े में
पलानी में
मोड़ा पर बैठकर
कऊडा तापना
बोरसी तापने को

गांव के
एक हर
सब हर
नेवते को

देवी माई
काली माई
बरम बाबा
शंकर भगवान को
जिन्हें
समय-समय पर
पूजता था

वहाँ के
सोमवार
शुक्रवार के
साप्ताहिक बाज़ार को

महाशिवरात्रि के
मेले को
और
मेले में जाने के लिए
मिलने वाले
चवन्नी
अठन्नी को

बाजार की
पकौड़ी
चाय
पान
गपास्टक को
जिन से
शाम गुलजार रहती थी

काका
काकी
भैया
बाबू
बहिनी
भौजाई
बाबा
सबको
मिस करता हूँ

याद करता हूँ
रोता जाता हूँ
अपराध बोध की आरी पर
कि
जीविका कमाने में
व्यस्त रहने पर
नहीं पहुँच पाता हूँ गाँव
नहीं हो पाता हूँ
शामिल
उनके
सुख-दुख में

जब गाँव जाता हूँ
तो और भी
मिस करता हूँ
उस गाँव को
शहर जाते समय
छोड़ गया था जिसे
भरे मन से

गाँव के रास्ते ही
पक्के नहीं हुए
बरन
संवेदनाएँ भी
तारकोल की तरह जल गयी

कच्चे रास्ते
सिकुड़ गए
जैसे मन

खेतों का ही
बटवारा नहीं हुआ
वरन
दिल का भी
बंटवारा हो गया

कम हो गए
खलियान
कच्चे रास्ते
बारी
बगीचे
गाँव समाज की जमीन
ताल गड़ई
जातिगत विषमता
जमीनों के चको का अंतर

बढ़ गया
मुकदमें
स्वार्थ
दिखावा
अपना पराया
सुविधाएँ
जलन
दौड़ने की होड़
येन केन प्रकारेण
कामयाब होने की चाह
मोदक
शराब
पक्के मकान
गाड़ियाँ

बिकने लगा
झूठी गवाही
झूठी कसमें
सब्जी
दूध
मछली
फल

गांव में
बिकने लगा
चिप्स
कोक
मोबाइल
इंटरनेट

सच है
गांव बदल गया
गांव,
वो गाँव नहीं रहा
शहर बन गया।