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काँपती है / अज्ञेय

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पहाड़ नहीं काँपता,

न पेड़, न तराई;

काँपती है ढाल पर के घर से

नीचे झील पर झरी

दिये की लौ की

नन्ही परछाईं।


बर्कले

नवम्बर १९६९