भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादलों की चादर / अनिता मंडा

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:55, 3 फ़रवरी 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

21
भरी हुई है
बादलों की चादर
सलवटों से
बिछाकर इसको
चाँद तारे सोये हैं
22
राह देखती
खड़ी छलनी लिए
व्रती नारियां
हटा बादल ओट
नियत में क्यों खोट।
23
विरही काटे
चाँद की खुरपी ले
सारी रतियाँ
तारों की फ़सल को
नींद नहीं अखियाँ।
24
रात आती है
चाँद का ख़ंजर ले
क़त्ल करने
बैठ यादों की ओट
बचाई जान मैंने।
25
आओगे तुम
दिल को समझाया
राहें निहारी
कानों में पहन के
आहटों का सागर।
26
ओढ़ निकली
कोहरे की चादर
उनींदे नैन
अलसाई सी भोर
ढूढ़ें धूप का कोर।
28
हरसिंगार
हर शाम सँवरे
भोर बिखरे
बाँटने को ख़ुशबू
बूँद-बूँद से झरे।
29
रूह को मेरी
अब करार आया
मिली रौशनी
इबादत किराया
हर पल चुकाया।
30
कैसे दिखते
हमको ये सितारे
इतने प्यारे
जो राह में तुम यूँ
अँधेरे न बिछाते।