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अभी और आगे / अजित कुमार

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छोटे-छोटे गाँव, और
ये पोखर, वह अमराई,
दूर-दूर फैले खेतों में
बिखरी हुई लुनाई…

‘छू-छू’ कहती हुई भागती गाड़ी
आख़िर किसको छूने जाती है ?
और…
उधर देखो—
वह चिड़िया उड़ी तार के खम्भे से
जा बैठी फुनगी पर…
यह परिचित चिड़िया
जो ऊँचे-नीचे होते तारों से उड़
हरदम
ऊँचे दरख़्त की टहनी पर जाकर
छुप जाती है ।

‘कू-कू’ करती हुई
भाप की कोयल गाती है ।
भागी जाती है…

और…
क्रासिंग पर खड़ा बटोही
लाठी और पोटली बाँधे हुआ बटोही,
जो हर बार
कभी क्रासिंग पर, या पगडंडी पर, या
पेड़ तले मुझको दिख जाता है ।
क्रासिंग ।
ठहरा हुआ बटोही ।
‘हू-हू’ दहती हुई आग की
रानी
उसकी ख़ातिर क्यों ठहरे ?
हँसती है ।
रफ़्तार बढाती, आगे धँसती है ।

सहयात्री उतरेंगे ?
उतरें ।
नए यात्री भर जाएँगे ।
भरें ।
रेल तो इसीलिए है—

आई है तो, जाएगी ।
जाएगी ? जाएगी ।
मुझको यहाँ, वहाँ पर तुम्हें
छोड़ भी आएगी ।
किसी एक मंजिल तक तो
पहुँचाएगी ।

लेकिन मुझको—
क्रासिंग तक, फुनगी तक, धूलभरे पथ तक,
औ’ सहयात्री तक…
--अभी और आगे जाना है ।