हाइकु : रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
गढ़वाली अनुवाद: डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री’
1
निर्मोही जग
सदा पीर ही बाँटे
सबको काटे ।
निर्मोही दुन्या
सदनी पिड़ा देंदी
सब्बू थैं खांदी
2
प्राणों का पंछी
अकेला उड़ चला
साँझ हो गई ।
प्राणू प्वथली
यकुली उड़ी ग्यायी
ब्याखुन ह्वे गे
3
इन नैनों से
आज अमृत चुआ
ये कैसे छुआ ?
यूँ आँख्यों बटी
आज अमृत च्वीं गे
कन छुयाली
4
माथा तुम्हारा
धरा पर चाँद-सा
उजाला किए ।
तुमारू मत्था
पिरथी माँ जून -सी
उजालू कयूँ
5
मन का तम
मिटाते रहे तेरे
मन के दिए ।
मनौं अन्ध्यारू
मैठाणी राई त्यारा
मन का दिवा
6
हमको मिले
अधूरे ही सपने
न थे अपने ।
हमू मिल्यन
अधूरा सी ही स्वीणा
न छा अपड़ा
7
धोखा दिया क्यों
हम तुम्हारे कभी
मीत नहीं थे ।
ध्वका किले द्ये
हम त्यारा छा कबी
गैल्या नि छा क्य
8
मुझे भरोसा
तुम पर इतना
नभ जितना ।
मेरु भरोसू
त्वे पर इथगा च
आगाश जथा
9
तुम्हारे दर्द
अँजुरी से पी लूँगा
युगों जी लूँगा ।
तुमारी पिड़ा
अंजुळीन पी द्योलू
जुगु जी ल्योलू
10
गले से लगी
सालों बाद बहिन
नदी उमगी ।
गौळा भेंटे गे
बरसू बाद बैण
गंगा उमड़ी
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