भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपुष्ट / यानिस रित्सोस / गिरधर राठी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:58, 13 अक्टूबर 2021 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह हमेशा उसी महाज्योति का हवाला देता ।
कहता — यही नहीं कि मैं उसे देख सकता हूँ, छू भी सकता हूँ,
बल्कि देखता नहीं, सिर्फ़ छूता हूँ, वह मेरे पास है, वह मैं हूँ ।
और ज्यों-ज्यों अन्धेरा गहरा होता,
और कमरा, मेज़, थालियाँ धुन्धला जातीं,
सागर-दृश्य, बूढ़ी घड़ी, चेहरे धुन्धला जाते,
वह दीप्त हो उठता उस कुर्सी पर —
वाकई, चौपाया कुर्सी भी जगमग हो जाती
मानो सधी हुई हो बादलों पर,
और हम चाहते तो मानो सचमुच उसे छू लेते !
लेकिन
हिम्मत न होती कि उठें
क्योंकि हम जहाँ बैठे थे — बहुत ऊँची सीढ़ी के सिरे पर—
और नीचे झाँक रहे थे, वहाँ पायदान न थे ।
हम वहाँ सीढ़ियाँ चढ़कर नहीं पहुँचे थे ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : गिरधर राठी