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धूप-2 / लिली मित्रा

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कल मैंने देखा था
धूप को चलते हुए,

पायल छनकाती फिरती है वो पेड़ों की पाँत पर!
आज चुपके से कैद कर लिये
उसकी पद छाप, तस्वीर में
दिखे?
अरे वो तो रहे...
देखो ठीक से !
हरी पात पर स्वर्णिम चिह्न,
उसको पता नहीं था कि- मै आ जाऊँगीं छत पर।
वो रोज़ की तरह एक पात से दूसरे पात पर
फुदकती फिर रही थी,
एक नन्ही बालिका की तरह
उसकी पायल की छनछन संग
संगत बिठा रही थी गौरैया,बुलबुल की चीं- चीं..
और नकल उतार रही थी
छत की दीवार पर पूँछ उठाकर
इधर उधर टिर्र-टिर्र कर नाचती गिलहरी,
पर वो अलमस्त अपनी ही क्रीड़ा में मग्न
नाचती फिर रही थी
इस पात से उस पात पर
कनकप्रभा की छाप छोड़ती...
देखो मैंने कहा था ना,
के मैंने सुनी है धूप के चलने की आवाज़!
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