क्षणिकाएं / कुमार मुकुल
जिनकी नाजुकी में
हैं बंद सांसें
उनकी मुस्कान
मरा आईना है।
शामिल कहां रहता हूं
अपनी ही हंसी में अब
हंसता हूं
कि हंसते चले जाने का
रोजगार हो जैसे।
तुम्हारे दुख
मुझे छूना चाहते हैं
और मैं
भागा फिर रहा
कि कहीं वे
मेरे भीतर सोए
दुखों को
जगा न दें।
तेरे बिना
यह जीवन
अमर हुआ जा रहा
सो लौट आना
देर-सबेर...।
तुम्हारी याद
बिल्कुल पागल है
बारहा सांकलें बजाती है।
हुक्मरां हैं हम
शर्म-ओ-हया की
औकात क्या -
जो पास आए।
हुक्मरां हुक्मरां से
लड़ते हैं
दो दुनिया तबाह होती है
शेष दो हुक्मरां ही बचते हैं।
हुक्मरां की
एक भौंह गीली है
कहीं कोई आशियां
जला होगा।
सीने पे रखा
पत्थर है वो
उसी ने सांसें
संभाल रक्खी हैं।
पत्थरदिली से
वाकिफ हूँ
हाँ, मेरी शख्सियत भी
दूब है।
सांसें
रूकती बस उसके लिए हैं
बाकी
सांसों का काम है चलना
तो,
चल रही हैं वे।
कहां हो तुम
आवाज तो दो
के आंसू अभी भी
हंसी से होड़ में
जीत जाते हैं।
बेलौस निगाहों में
कांपते
बुलंदियों के पठार
यह सौंदर्य
किसके पास है।
क्या होता है
भूलना
याद रखा जाता है
कैसे
कैसी बकवास है
यह।
उसका वर्तमान
मेरे अतीत में
आवाजाही कर रहा
और
इस तरह
मेरा अतीत
व्यतीत नहीं हो रहा।
घर से
निकले भी नहीं
इश्क
गुजर भी गया ...।
मेरी
उदासी ने
तेरा चेहरा
लगा रखा है।
जी तो उससे
रूठने को करता है
डर है कि
मनाना न
भूल जाउं मैं।
हारता
आया हूं
हर बार
पहले से
बड़ी लड़ाई
हारता हूं।