भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस रोज़ / अनीता सैनी

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:28, 7 जुलाई 2023 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 उस रोज़
घने कोहरे में
भोर की बेला में
सूरज से पहले
तुम से मिलने
आई थी मैं
लैंपपोस्ट के नीचे
तुम्हारे इंतज़ार में
घंटों बैठी रही
एहसास का गुलदस्ता
दिल में छिपाए
पहनी थी उमंग की जैकेट
विश्वास का मफलर
गले की गर्माहट बना
कुछ बेचैनी बाँटना
चाहती थी तुमसे
तुम नहीं आए
रश्मियों ने कहा-
तुम निकल चुके हो
अनजान सफ़र पर।