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दो बन्दर / सूर्यकुमार पांडेय

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एक पेड़ की डाली पर
रहते दो प्यारे बन्दर

दोनों में याराना था
मिलना, आना-जाना था
उसी पेड़ का फल खाकर
ज़िन्दा थे दोनों बन्दर

मगर तभी आँधी आई
काली धूल वहाँ छाई
दोनों छिपने को भागे
यह पीछे था, वह आगे

यह मन्दिर में जा बैठा
वह भी मस्जिद में पैठा
आँधी जब हो गई ख़तम
धूल हो गई थोड़ी कम

दोनों तब वापस आए
लेकिन थे मुँह लटकाए
एक दूसरे से नाराज़
जैसे खा जाएँगे आज

यारी उनकी टूट गई
और डाल भी छूट गई
एक गया मस्जिद में फिर
गया दूसरा भी मन्दिर

जिसका अब तक फल खाया
उस डाली को बिसराया
मन्दिर-मस्जिद दूर नहीं
पर मिलना मंजूर नहीं

अगर कभी मिल भी जाते
एक दूजे पर खिसियाते
कौन इन्हें समझाए अब
जैसा ईश्वर, वैसा रब

मन्दिर-मस्जिद जुदा नहीं
नहीं राम, तो ख़ुदा नहीं ।