भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बीज / इमरोज़
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:31, 30 मार्च 2012 का अवतरण
|
एक ज़माने से
तेरी ज़िन्दगी के दरख़्त
कविता को
तेरे साथ रहकर
देखा है
फूलते, फलते और फैलते…
और जब
तेरी ज़िन्दगी का दरख़्त
बीज बनना शुरू हो गया
मेरे अन्दर जैसे
कविता की पत्तियाँ
फूटने लगीं
और जिस दिन
तेरी ज़िन्दगी का दरख़्त बीज बन गया
उस रात इक कविता ने
मुझे बुलाकर अपने पास बिठाया
और अपना नाम बताया
अमृता-
जो दरख़्त से बीज बन गई
मैं काग़ज़ लेकर आया
वह कागज़ पर अक्षर-अक्षर हो गई
अब कविता अक्सर आने लगी है
तेरी शक्ल में तेरी ही तरह मुझे देखती
और कुछ समय मेरे संग हमकलाम होकर
मेरे अन्दर ही कहीं गुम हो जाती है…
मूल पंजाबी से अनुवाद : सुभाष नीरव