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पद / गोरखनाथ
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कवि: गोरखनाथ
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रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । < br >
मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। < br >
अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । < br >
जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । < br >
तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। < br >
काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । < br >
कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।। < br >
सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा । < br >
सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा । < br >
कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । < br >
गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।