भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पद / गोरखनाथ

Kavita Kosh से
208.102.209.199 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 02:06, 2 दिसम्बर 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: गोरखनाथ

~*~*~*~*~*~*~*~


रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला ।

मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।।

अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली ।

जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां ।

तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।।

काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा ।

कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।।

सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा ।

सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।

कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ ।

गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ । २०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC)208.102.209.199 २०:३६, १ दिसम्बर २००७ (UTC) ना कोई बारू , ना कोई बँदर, चेत मछँदर, आप तरावो आप समँदर, चेत मछँदर निरखे तु वो तो है निँदर, चेत मछँदर चेत ! धूनी धाखे है अँदर, चेत मछँदर कामरूपिणी देखे दुनिया देखे रूप अपारा सुपना जग लागे अति प्यारा चेत मछँदर ! सूने शिखर के आगे आगे शिखर आपनो, छोड छटकते काल कँदर , चेत मछँदर ! साँस अरु उसाँस चला कर देखो आगे, अहालक आया जगँदर, चेत मछँदर ! देख दीखावा, सब है, धूर की ढेरी, ढलता सूरज, ढलता चँदा, चेत मछँदर ! चढो चाखडी, पवन पाँवडी,जय गिरनारी, क्या है मेरु, क्या है मँदर, चेत मछँदर ! गोरख आया ! आँगन आँगन अलख जगाया, गोरख आया! जागो हे जननी के जाये, गोरख आया ! भीतर आके धूम मचाया, गोरख आया ! आदशबाद मृदँग बजाया, गोरख आया ! जटाजूट जागी झटकाया,गोरख आया ! नजर सधी अरु, बिखरी माया,गोरख आया ! नाभि कँवरकी खुली पाँखुरी, धीरे, धीरे, भोर भई, भैरव सूर गाया, गोरख आया ! एक घरी मेँ रुकी साँस ते अटक्य चरखो, करम धरमकी सिमटी काया,गोरख आया ! गगन घटामेँ एक कडाको,बिजुरी हुलसी, घिर आयी गिरनारी छाया,गोरख आया ! लगी लै, लैलीन हुए, सब खो गई खलकत, बिन माँगे मुक्ताफल पाया, गोरख आया !

"बिनु गुरु पन्थ न पाईए भूलै से जो भेँट, जोगी सिध्ध होइ तब, जब गोरख से हौँ भेँट!" (-- पद्मावत )