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कहते थे "मौन उषा गवाक्ष से प्राण! झांकता सविता हो / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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कहते थे "मौन उषा गवाक्ष से प्राण! झांकता सविता हो।
परिरंभण-व्याकुल युगल बाहु की अथवा तन्मय कविता हो।
हो बिम्बाधर अरुणाभ पाणिपद नवल नीरधर अभिरामा ।
ओ नवल नील परिधान मंडिता सित दशना कुंतल श्यामा।
री नव अषाढ़ की सजल घटा सी श्यामल कुंतल बिखराये।
अति चपल करों से चंचल अंचल अम्बर उर पर सरकाए ।
अब पलक उठा पूछे किससे क्या बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥१३॥