भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जितनी भी है दीप्ति / अरुण कमल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:19, 5 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धीरे धीरे झर गई मिट्टी
रहा बचा केवल जड़-रेशा

अंश-अंश कर दमक घट रही
बादल सिर पर छाए
उतर गए सब बीच राह में
हुई उलार अब गाड़ी

हाथ आँचने उठे नागरिक
कब की टूटी पाँत
खाते-खाते दाँत झड़े पर
पत्तल पकड़े रहा किनारे

चारों ओर अँधेरा छाया
मैं भी उठूँ जला लूँ बत्ती
जितनी भी है दीप्ति भुवन में
सब मेरी पुतली में कसती ।