मैं तुझे फ़िर मिलूंगी
कहाँ किस तरह पता नही
शायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बन
तेरे केनवास पर उतरुंगी
या तेरे केनवास पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
खामोश तुझे देखती रहूंगी
या फ़िर सूरज कि लौ बन कर
तेरे रंगो में घुलती रहूंगी
या रंगो कि बाहों में बैठ कर
तेरे केनवास से लिपट जाउंगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे जरुर मिलूंगी
या फ़िर एक चश्मा बनी
जैसे झरने से पानी उड़ता है
मैं पानी की बूंदें
तेरे बदन पर मलूंगी
और एक ठंडक सी बन कर
तेरे सीने से लगूंगी
मैं और कुछ नही जानती
पर इतना जानती हूँ
कि वक्त जी भी करेगा
यह जनम मेरे साथ चलेगा
यह जिस्म खतम होता है
तो सब कुछ खत्म हो जाता है
पर चेतना के धागे
कायनात के कण होते हैं
मैं उन कणों को चुनुंगी
मैं तुझे फ़िर मिलूंगी !!