भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्थर होता इंसान / हरकीरत हकीर
Kavita Kosh से
Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:00, 31 मार्च 2012 का अवतरण
दर्द के इस शहर में
जल रहा चिराग बेखबर है
कोहरे सी नज्म् है औ,
शब्द तार तार है
एक बूँद पीठ सेंककर
धुआँ-धुआँ सी उड चली
वक्त की मुरदा उम्मीदें
पर चाहतें बेशुमार हैं
प्रेम,स्नेह,नीर पत्तियाँ
रौंदकर सब बढे जा रहे हैं
लोहे की साँकलों के अंदर
दस्तक धडकनों की बेकार है
घर,बाग,ठूँठ से जंगल
सर्द-शुष्क बियाबान से हैं खडे
सँघर्षो की इस आग में
पत्थर हुए इँसान हैं