भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बस्ती की औरत / देवांशु पाल
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:36, 12 मार्च 2009 का अवतरण
बस्ती की औरत से
मत पूछो
कि, उसकी आँखों के नीचे
चमकती बून्दे
पसीने की हैं या आँसू
बस्ती की औरत से
मत पूछो
उसके होंठों की चुप्पियाँ
उसकी मजबूरी है या इच्छा
बस्ती की औरत से
मत पूछो
उसके कोख में
पलता बच्चा
उसकी इच्छा की है या नहीं
बस्ती की औरत से
मत पूछो
वह जिन्दगी काट रही है
या खुद ब खुद जिन्दगी
कट रही है
वह तुम्हे कुछ भी नहीं बताएगी
बस्ती की औरत
बरसों से ऐसे ही
जीती आ रही है