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आदमी के हाथ / नंद भारद्वाज

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इतने वहशी
और बर्बर
कैसे हो उठते हैं आख़िर
              आदमी के हाथ
कैसे मार लेते हैं
अपने भीतर का आदमी ?

हाथ -
जो गिरते को सहारा देते हैं,
हाथ -
जो डूबते असहाय को
किनारा देते हैं,
हाथ -
जो सुहागन की मांग में
पूरते हैं सिन्दूर,
हाथ -
जो हज़ारों की हिफ़ाज़त में
अपने को होम देते हैं -

जिनके ईमान पर
टिका हुआ है आसमान
जिनके दीन पर
टिकी हुई है दुनिया,
जिनकी अंगुली को थाम कर
उठ खड़ी होती है
एक पूरी की पूरी कौम,
उस कौमियत की कोख में पलते
माटी की गंध में खिलते
सयाने हाथ -
आख़िर कैसे उजाड़ लेते हैं
अपने ही आंगन की शान्ति
                सुख-चैन,
कैसे जख़्मी कर लेते हैं
अपनी ही देह को
और फिर रोमांचित होते हैं
अपने ही रिसते घावों से !

यह सभ्यता के
किस भयानक दौर में
आख़िर पहुँचते जा रहे हैं हम
जहाँ आदमी-दर-आदमी की मौत
महज एक सूचना है
सुबह के अख़बार की !

धमाकों से थरथरा उठती है
धरती की कोख -
यह किस तरह की
आत्मघाती आग में
घिरता-झुलसता जा रहा है
                आदमी !

आदमी के हाथ
जो बंजर में
फूल खिलाते हैं
लहलहाते झूमते फलते
हज़ारों किस्म के
दिक्कालजीवी पेड़
आदमी के हाथ का
आशीष पाते हैं !

आज वही खुरपी सम्हाले हाथ
जब बढ़ते हैं आगे
          जड़ों की ओर
पौधों की रूह काँपती है !

आख़िर किस तरह की
हविश और हैवानियत में
मुब्तिला हैं आदमी के हाथ
      क्या वाकई ज़िन्दा है
      इन हाथों के पीछे आदमी ?