भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आखिर कब तक / विजयशंकर चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:53, 9 जुलाई 2020 का अवतरण
गाँठ से छूट रहा है समय
हम भी छूट रहे हैं सफर में
छूटी मेले जाती बैलगाड़ी
दौड़ते-दौड़ते चप्पल भी छूट गई
गिट्टियों भरी सड़क पर
हल में जुते बैल छूट गए
छूट गया एक-एक पुष्ट दाना
देस छूट गया
रास्ते में छूट गए दोस्त
कुछ जरूरी किताबें छूट गईं
पेड़ तो छूटे अनगिनत
मूछोंवाले योद्धा भी छूट गए
जिसे लेकर चले थे वह वज्र छूट गया
छूट गया ईमान
पंख छूट गए देह से
हड्डियों से खाल छूट गई
आखिर कब तक नहीं छूटेगी सहनशक्ति?