भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना / ग़ालिब

Kavita Kosh से
Sandeep Sethi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:28, 2 मार्च 2010 का अवतरण (इश्रत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना / ग़ालिब का नाम बदलकर इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना )

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


इशरते कतरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना

तुझसे है किस्मत में मेरी सूरत-ए-कुफ़्ल-ए-अब्जद
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना

दिल हुआ कशमकश चराए जहमत में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक्दे का वा हो जाना

अब ज़फ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
इस कदर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना

ज़ोफ़ से गिरिया मुबादिल बाह दम सर्द हवा
बावर आया हमें पानी का हवा हो जाना

दिल से मिटना तेरी अन्गुश्त हिनाई का ख्याल
हो गया गोश्त से नाखून का जुदा हो जाना

है मुझे अब्र-ए-बहारी का बरस कर खुलना
रोते-रोते ग़म-ए-फ़ुरकत में फ़ना हो जाना

गर नहीं निकहत-ए-गुल को तेरे कूचे की हवस
क्यों है गर्द-ए-राह-ए-जोलने सबा हो जाना

बख्शे हैं जलवे गुल जोश-ए-तमाशा गालिब
चश्म को चाहिये हर रंग में वा हो जाना