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रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 1
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हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
- पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,
- वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
- कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
- क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
- संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
- उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
- टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
- पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
- हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
- वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
- झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
- बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।