भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कुछ अशआर / फ़ानी बदायूनी

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:46, 7 जुलाई 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बाग़ में जो कली नज़र आती है।

तसवीरे-फ़सुर्दगी नज़र आती है॥


कश्मीर में हर हसीन सूरत ‘फ़ानी’।

मिट्टी में मिली हुई नज़र आती है॥


फूलों की नज़र-नवाज़ रंगत देखी,

मख़लूक़ कि दिल-गुदाज़ हालत देखी,

कु़दरत का करिश्मा नज़र आया कश्मीर,

दोज़ख़ में समोई हुई जन्नत देखी॥


दैर में हरम में गुज़रेगी।

उम्र तेरे ही ग़म में गुज़रेगी॥


हाँ नाखू़ने-ग़म कमी न करना।

डरता हूँ कि ज़ख़्मेदिल न भर जाये॥


ग़ैरत हो तो ग़म की जुस्तजू कर।

हिम्मत हो तो बेक़रार हो जा॥


चुन लिया तेरी मुहब्बत ने मुझे।

और दुनिया हाथ मलकर रह गई॥


हूँ असीरे-फ़रेबे-आज़ादी<ref>स्वतंत्रता के धोके का क़ैदी</ref>।

पर है और मश्क़े-हीलये-परवाज़<ref>पर होते हुए भी न उड़ने के लिए बहाना ढूँढ़ना</ref>


इश्क है परतवे-हुस्ने-महबूब<ref>प्रेयसी के सौंदर्य का प्रतिबिम्ब</ref>।

आप अपनी ही तमन्ना क्या खू़ब॥


अब लब पै वोह हंगामये-फ़रियाद नहीं है।

अल्लाह रे तेरी याद कि कुछ याद नहीं है॥


हमको मरना भी मयस्सर नहीं जीने के बग़ैर।

मौत ने उम्रे-दो रोज़ा का बहाना चाहा॥


बिजलियाँ शाख़े-नशेमन पै बिछी जाती है।

क्या नशेमन से कोई सोख्ता-सामाँ<ref>दग्धहृदय</ref> निकला?


‘फ़ानी’ की ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी यारब।

मौत और ज़िन्दगी में कुछ फ़र्क़ चाहिए था॥


शब्दार्थ
<references/>