उजाड़ बन के कुछ आसार से चमन में मिले / फ़िराक़ गोरखपुरी
उजाड़ बन में कुछ आसार से चमन के मिले
दिले-ख़राब से वो अपकी याद बन के मिले।
हर-इक मशामाम<ref>श्रवण शक्ति</ref> में आलम है युसुफ़िस्ताँ का
परखने वाले तो कुछ बू-ए-पैरहन के मिले
थी एक बू-ए-परेशाँ भी दिल के सहरा में
निशाने - पा भी किसी आहू-ए-ख़ुतन<ref>ख़ुतन की हिरन</ref> के मिले।
अजीब राज है तनहाई-ए-दिले-शाएर
कि खिलवतों<ref>एकान्त</ref> में भी आसार अन्जुमन के मिले।
वो हुस्नो-इश्क़ जो सुब्हे-अज़ल से बिछड़े थे
मिले हैं वदी-ए-ग़ुर्बत मएं फिर वतन के मिले।
कुछ अहले-बज़्मे-सुख़न समझे, कुछ नहीं समझे
बशक्ले-शोहरते-मुबहम, सिले सुख़न के मिले।
था जुर्आ-जुर्आ<ref>घूँट-घूँट</ref> नयी ज़िन्दगी का इक पैग़ाम
जो चन्द जाम किसी बादा-ए-कुहन के मिले।
बज़ोरे - तबा हर इक तीर को कमान किया
हुये हैं झुक के वो रुख़्सत, जो मुझसे तन के मिले।
कमन्दे-फ़िक्रे - रसा में हरीफ़ मान गये
वो पेंचो-ताब तेरी ज़ुल्फ़े-पुर्शिकन के मिले।