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युगावतार गांधी / सोहनलाल द्विवेदी

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चल पड़े जिधर दो ड़ग, मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर;
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,

जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;

हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!

युग बढ़ा तुम्हारी हंसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;

तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगकर्म तना;

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!

तुम युग-युग की रूढियां तोङ
रचते रहते नित नई सृष्टि,
उठती नवजीवन की नींवे
ले नवचेतन की दिव्य- दृष्टि;

धर्माडंबर के खंडहर पर
कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
मानवता का पावन मंदिर,
निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!

बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
गढ़ते तुम अपना रामराज,
आत्माहुति के मणिमाणिक से
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!

तुम कालचक्र के रक्त सने
दशनों को करके पकड़ सुदृढ़,
मानव को दानव के मुंह से
ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;

पिसती कराहती जगती के
प्राणों में भरते अभय दान,
अधमरे देखते हैं तुमको,
किसने आकर यह किया त्राण?

दृढ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम कालचक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!

कंपता असत्य, कंपती मिथ्या,
बर्बरता कंपती है थरथर!
कंपते सिंहासन, राजमुकुट
कंपते, खिसके आते भू पर,

हे अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
सेनायें करती गृह-प्रयाण!
रणभेरी तेरी बजती है,
उङता है तेरा ध्वज निशान!

हे युग-दृष्टा, हे युग-स्त्रष्टा,
पढते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
इस राजतंत्र के खंडहर में
उगता अभिनव भारत स्वतन्त्र!