भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
संतूर बजा / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:13, 2 जुलाई 2010 का अवतरण
संतूर बजा
केसर-घाटी में दिन भर संतूर बजा
रहीं बहुत दिन इस घाटी में
साँसें ज़हरीली
और रहीं बरसों माँओं की
आँखें भी गीली
संतूर बजा शाहों के झगड़ों में
मरती रही प्रजा
सदियों रही गुलाबों की खुशबू
इस घाटी में
और सभी को गले लगाना था
परिपाटी में
संतूर बजा
इस कलजुग में इसी बात की मिली सज़ा
संतों पीरों की बानी के
वही हवाले हैं
सबने उनके अपने-अपने
अर्थ निकाले हैं
संतूर बजा
पुरखों ने था नेह राग इस पर सिरजा