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पानी बसंत पतझर / शांति सुमन

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अरी ज़िंदगी पानी में तू
बना रही घर है
बाहर-बाहर है बसंत,
पर भीतर पतझर है।

जहां कहीं भी जली रोशनी
तुझको हुआ पता,
पर अपने टुकड़ों को कैसे
जोड़े तुम्हीं बता,

टूटी हुई छतों पर उड़ता
सपनों का पर है।

शब्द जोड़ते रहे-
गए ढहते ही सबके माने,
एक आग जलती ही रहती
सिरहाने-पैताने,

भीग रही वर्षा में कच्ची हंसी
बहुत बेघर है।

जड़ी हुई गहनों पर
भींगी आंखों की छापें,
इस जंगल में तेज़ हवा
तू कहां-कहां नापे,

इतना तो तय है कि तुम्हारा
उठा हुआ सिर है।