भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी बहुत बरसा / शकुन्त माथुर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:59, 24 सितम्बर 2009 का अवतरण ("पानी बहुत बरसा / शकुन्त माथुर" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अबकी पानी बहुत बरसा
टूट गए तन बाँध
मन तो बहुत सरसा

बहती रही रस धार
दूर हुई सारी थकान
मन ने फिर से
थाम ली लगाम

पानी बहुत बरसा

ये बाढ़ से खण्डहर हुए घर
अपने पर हँसते
यह बसे-बसे घर
उजड़े से दिखते
मेरा मन डरपा
पानी बहुत बरसा