भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सदा बरसने वाला मेघ / रमानाथ अवस्थी
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:45, 4 जून 2008 का अवतरण
मैं सदा बरसने वाला मेघ बनूँ
तुम कभी न बुझने वाली प्यास बनो।
संभव है बिना बुलाए तुम तक आऊँ
हो सकता है कुछ कहे बिना फिर जाऊँ
यों तो मैं सबको बहला ही लेता हूँ
लेकिन अपना परिचय कम ही देता हूँ।
मैं बनूँ तुम्हारे मन की सुन्दरता
तुम कभी न थकने वाली साँस बनो।
तुम मुझे उठाओ अगर कहीं गिर जाऊँ
कुछ कहो न जब मैं गीतों से घिर जाऊँ
तुम मुझे जगह दो नयनों में या मन में
पर जैसे भी हो पास रहो जीवन में ।
मैं अमृत बाँटने वाला मेघ बनूँ
तुम मुझे उठाने को आकाश बनो।
हो जहाँ स्वरों का अंत वहाँ मैं गाऊँ
हो जहाँ प्यार ही प्यार वहाँ बस जाऊँ
मैं खिलूँ वहाँ पर जहाँ मरण मुरझाये
मैं चलूँ वहाँ पर जहाँ जगत रुक जाये।
मैं जग में जीने का सामान बनूँ
तुम जीने वालों का इतिहास बनो।