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उपवन / हरिवंशराय बच्‍चन

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माली, उपवन का खोल द्वार!
बहु तरूवर ध्वज-से फहरता,
बहु पत्र-पताके लहराता,
पुष्पों के तोड़ण छहराता,
यह उपवन दिखला एक बार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
कोकिल के कूजन से कूजित,
भ्रमरों के गुंजन से गुंजित,
मधुऋतु के साजों से सज्जित,
यह उपवन दिखला एक बार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
अपने सौरभ से मदमाता,
अपनी सुखमा पर इतराता,
नित नव नंदनवन का भ्रता,
यह उपवन दिखला एक बार!

"मत कह- उपवन का खोल द्वार!
यह नृप का उपवन कहलाता,
नृप-दंपति ही इसमें आता,
कोई न और आने पाता,
यह आज्ञा उसकी दुर्निवार!

मत कह उपवन का खोल द्वार!
यदि लुक-छिपकर कोई आता,
रखवालों से पकड़ा जाता,
नृप सम्मुख दंड कड़ा पाता,
अंदर आने का तज विचार!"

माली, उपवन का खोल द्वार!
उपवन मेरा मन ललचाता,
आकर न यहाँ लौटा जाता,
मैं नहीं दंड से भय खाता,
मैं सुषमा पर बलि बार-बार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
यह देख विहंगम है जाता,
कब आज्ञा लेने यह आता,
फिर मैं ही क्यों रोका जाता,
मैं एक विहग मानवाकार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
कल्पना - चपल - परधारी हूँ,
भावना - विश्व - नभचारी हूँ,
इस भू पर एक अनारी हूँ,
फिरता मानव-जीवन बिसार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
उपवन से क्या ले जाऊँगा,
तृण-पात एक न उठाऊँगा,
कैसे कुछ ले उड़ पाऊँगा,
निज तन-मन ही हो रहा भार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
भय, मीठे फल खा जाऊँगा,
कुछ काट-कुतर बिखराऊँगा,
मैं कैसा विहग बताऊँगा?
मैं खाता निज उर के अँगार।

माली, उपवन का खोल द्वार!
भय, नीड़ बना बस जाऊँगा?
अपनी संतान बढ़ाऊँगा?
सुन, अपना नियम सुनाऊँगा-
एकाकी वन-उपवन विहार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
विहगों से द्वेष बढ़ाऊँगा?
भ्रमरों को मार भगाऊँगा?
अपने को श्रेष्ठ बताऊँगा?
मैं उनके प्रति स्वर पर निसर!

माली, उपवन का खोल द्वार!
गुरूवार उनको आज बाऊँगा,
श्रम युत शिष्यत्व निभाऊँगा,
शिक्षा कुछ उनसे पाऊँगा,
सिखलाएँगे वे चिर उदार!

माली उपवन का खोल द्वार!
लतिका पर प्राण झुलाऊँगा,
पल्लव दल में छिप जाऊँगा,
कुछ ऐसे गीत सुनाऊँगा,
जो चिर सुंदर, चिर निर्विकार!

माली, उपवन का खोल द्वार!
परिमल को हृदय लगाऊँगा,
कलि-कुसुमों पर मँडराऊँगा,
पा फड़काकर उड़ जाऊँगा,
फिर चहक-चहक दो-चार बार!