भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलसा / जीवकांत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:42, 3 अक्टूबर 2009 का अवतरण ("कलसा / जीवकांत" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])
पूजा के लिए बिठाया है माँ ने कलसा
वह लीप देती है आँगन का एक कोना
बिठा देती है कलसा
अब उतनी ही धरती साफ़ है
जितना उसने लीपा है
उसने कलसे में धरा है पानी
अछिन्न जल धरा है
अब सात नदियों और पाँच समुद्रों में
उतना ही जल अछिन्न है
जितना उसके कलसे में धरा है
उसने धरा है कलसे पर आम का पल्लव
वह बचाना चाहती है पेड़
पत्तों-वृक्षों की हरियाली
अब वह हरियाली कलसे पर सिमट आई है!
आम के पल्लव में डालती है मिट्टी का दिया
धर देती है चौमुख दीप
चारों ओर जीवन चारों ओर प्रकाश
अब इस दिए को बचाकर रखना
कितना ज़रूरी है
माँ ने आज भी ओरिया लिया है
कलसा
अब केवल माँ ही ओरिया सकती है
पूजा का कलसा।