भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्यास की आग / अली सरदार जाफ़री
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:55, 6 नवम्बर 2009 का अवतरण
मैं कि हूँ प्यास के दरिया की तड़पती हुई मौज
पी चुका हूँ मैं समन्दर का समन्दर फिर भी
एक-इक क़तरा-ए-शबनम को तरस जाता हूँ
क़तरःए-शबनमे-अश्क
क़तरःए-शबनमे-दिल, ख़ूने-जिगर
क़तरःए-नीम नज़र<ref>तिरछी नज़र
</ref>
या मुलाक़ात के लम्हों के सुनहरी क़तरे
जो निगाहों की हरारत से टपक पड़ते हैं
और फिर लम्स के नूर<ref>स्पर्श
का प्रकाश् </ref>
और फिर बात की ख़ुशबू में बदल जाते हैं
मुझको यह क़तर-ए-शादाब भी चख लेने दो
दिल में यह गौहरे-नायाब<ref>दुर्लभ मोती
</ref> भी रख लेने दो
ख़ुश्क हैं होंट मिरे, ख़ुश्क ज़बाँ है मेरी
ख़ुश्क है दर्द का, नग़मे का गुलू<ref>कण्ठ</ref>
मैं अगर पी न सका वक़्त का यह आबे-हयात<ref>जीवन का जल</ref>
प्यास की आग में डरता हूँ कि जल जाऊँगा
शब्दार्थ
<references/>