भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सन्नाटा / कैलाश गौतम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है

सुबह-सुबह ही सूरज का मुंह उतरा-उतरा है।


पानी ठहरा जहां, वहां पर

पत्थर बहता है

अपराधी ने देश बचाया

हाकिम कहता है

हाकिम का भी अपराधी से रिश्ता गहरा है।


हंसता हूं जब तुम कबीर की

साखी देते हो

पैर काटकर लोगों को

वैसाखी देते हो

दहशत में है आम आदमी, तुमसे खतरा है।


ठगा गया है आम आदमी

आया धोखे में

घर में भूत जमाये डेरा

देव झरोखे में

गूंगों की पंचायत करने वाला बहरा है।


जैसा तुम बोओगे भाई!

वैसा काटोगे

भैंसे की मन्नत माने हो

भैंसा काटोगे

तेरी बारी है चोरी की, तेरा पहरा है।