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विदेश में / हरजेन्द्र चौधरी

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कोई नहीं जानता यहाँ मेरी भाषा
मैं नहीं समझ पाता अर्थ
उन शब्दों के
बोल रहे लोग इस शहर्के
होटलों, रास्तों, स्टेशनों, बाज़ारों, क्लबों में

किसी से नही की बात
हफ़्ता हो गया
नहीं गया किसी के घर
हफ़्ता हो गया
नहीं मिलाया किसी से हाथ
हफ़्ता हो गया
अकेले-अकेले ढो रहा उम्मीदें और स्मृतियाँ
हफ़्ता हो गया
मलबे दिखते सपनों के
हफ़्ता हो गया

हफ़्ता हो गया
भीतर उग आया जंगल आदिम
मैं कहाँ-कहाँ काटता फिरा
बीहड़ वक़्त...

रचनाकाल : 1994, तोक्यो