भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निरंजन धन तुम्हरो दरबार / कबीर

Kavita Kosh से
RAM SARAN YADAV (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:09, 13 दिसम्बर 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कबीर


निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
जहां न तनिक न्याय विचार ।।
रंगमहल में बसें मसखरे, पास तेरे सरदार ।
धूर धूप में साधो विराजें, होये भवनिधि पार ।।
वेश्या आेढे खासा मखमल, गल मोतिन का हार ।
पतिव्रता को मिले न खादी सूखा ग्रास अहार ।।
पाखंडी को जग में आदर, सन्त को कहें लबार ।
अज्ञानी को परं ब्रहम ज्ञानी को मूढ़ गंवार ।।
सांच कहे जग मारन धावे, झूठन को इतबार ।
कहत कबीर फकीर पुकारी, जग उल्टा व्यवहार ।।

निरंजन धन तुम्हरो दरबार ।
»