ओ चिरैया!
कितनी गहरी
हुई है तेरी प्यास!
जंगल जलकर
ख़ाक हुए हैं
पर्वत –घाटी
राख हुए हैं ,
आँखों में
हरदम चुभता है
धुआँ-धुआँ आकाश।
तपती
लोहे-सी चट्टानें
धूप चली
धरती पिंघलाने
सपनों में
बादल आ बरसे
जागे हुए उदास।
उड़ी है
निन्दा जैसी धूल,
चुभन-भरे
पग-पग हैं बबूल
यही चुभन
रचती है तेरी –
पीड़ा का इतिहास।
-0-[11-4-1994: शीराज़ा मार्च 96,अमृत सन्देश,26-6-94, आका-अम्बिकापुर 6-6-99]