छतों पर भागते लोग / श्रीनिवास श्रीकांत
आधी रात छतों पर
भागते हैं लोग
छतें छतें और छतें
मीलों तक फैली हुई जुड़वाँ
फफूँद लगे आसमान
छिपकलियों सजे तोरणद्वार
एक दूसरे की ओर खुलते
कोनों में कुण्डली मारे
दुबकी है हवा
कोई नहीं रहता इनमें
इन्हें है सूरज से गुरेज़
धूप में असहनीय चिढ़
आधी रात छतों पर
भागते हैं लोग
उल्टे पाँव
अधकटे चेहरे लिए
एक वक्त था
जब वे रहते थे घरों में ज़मींदोज़
लेकिन अब घर के डर से
रहते हैं बाहर
कमरे बने हैं मक़बरे,तलघर या सूखे जलाशय
पैदा होते हैं बच्चे छतों पर
दौड़ते-दौड़ते
छतों के फर्श सब तिलस्मी हैं
तिलस्मी क्या
उन पर पूरा एक शहर है
जगमगाता शहर
दिन को सोता रात को जागता
निशाचर
धूप नहीं आती इन घरों में
आती है तो मुर्दों की सदा
एक सूराख है कहीं
नींव के आस-पास
छनती है जिसमें ज़हरीली रोशनी
अपने लिये इन लोगों ने
उगाना चाहा था कभी
पेटियों में फ़सलें
उगते हैं अब जिनमें
कंकरीट के बेजान फूल
पड़ी हैं कीचन द्वारों पर
टूटी हुई बोतलें
खिड़क़ी पर पिचकी थैलियां
क़ाग़ज़ की कश्तियां
खाने की मेज़ों पर
पक्षियों की बीट
सूखी हुई आँतें
आँख
भुजाएँ
फर्श पर लौटते हुए टेढ़े पदचिन्ह
राख़ के ढेर पर बैठे
फूस भरे जानवर
नरक-सा लगता है
ये पूरा मंज़र
बदबूदार ठण्डा
पाग़ल ज़हन का जैसे
बिखरा हुआ सिलसिला
अन्दर ही अन्दर
लोप होते बोध के आकर्षण से जुड़ा