पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १३
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गूँजा किया देर तक उसका, हाहाकर वहाँ फिर भी,
हुईं उदास विदेहनन्दिनी, आतुर एवं अस्थिर भी।
होने लगी हृदय में उनके, वह आतंकमयी शंका,
मिट्टी में मिल गई अन्त में, जिससे सोने की लंका॥
"हुआ आज अपशकुन सबेरे, कोई संकट पड़े न हा!
कुशल करे कर्त्तार" उन्होंने, लेकर एक उसाँस कहा।
लक्ष्मण ने समझाया उनको-"आर्य्ये, तुम निःशंक रहो,
इस अनुचर के रहते तुमको, किसका डर है, तुम्हीं कहो॥
नहीं विघ्न-बाधाओं को हम, स्वयं बुलाने जाते हैं,
फिर भी यदि वे आ जायें तो, कभी नहीं घबड़ाते हैं।
मेरे मत में तो विपदाएँ, हैं प्राकृतिक परीक्षाएँ,
उनसे वही डरें, कच्ची हों, जिनकी शिक्षा-दीक्षाएँ॥
कहा राम ने कि "यह सत्य है, सुख-दुख सब है समयाधीन,
सुख में कभी न गर्वित होवे, और न दुख में होवे दीन।
जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
जब वे आजावें तब उनसे, डटकर शूर समर ठाने॥