भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
डूब गया दिन / ओम प्रभाकर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:43, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण ("डूब गया दिन / ओम प्रभाकर" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
डूब गया दिन
जब तक पहुँचे तेरे द्वारे।
एक धुँधलका छाया ओर-पास
धूप गाँव-बाहर की छूट गई,
छप्पर-बैठक सब बिल्कुल उदास
पगडंडी दरवाज़े टूट गई,
भारी था मन
हम थे काफ़ी टूटे-हारे।
सूना आँगन, सूनी तिद्वारी
तुलसी का चौरा सूना-सूना।
ऐसे सूनेपन में हमें हुआ
ख़ुद साँसें लेते में दुख दूना।
चौका-बासन
छतें, छज्जे सब अँधियारे।
धीरे-धीरे आँचल ओट किए
भीतर से दीप लिए तुम आईं।
संग-संग एक मौन ज्योति-पुंज
संग-संग एक मलिन परछाईं।
सिहरा आँगन
सिहरे हम, सिहरे गलियारे।