भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर-बाहर / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


स्कूल
अस्पताल
दफ़्तर
काम करते हुए कहीं भी
या चलते हुए सड़क पर
मैं औरत होती हूँ


झाड़ते-पोंछते
बर्तन-भांडा करते
उधड़ा हुआ सिल्स्ते
राँधते-पकाते घर में
माँ होती हूँ