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416, सेक्टर 38 / लाल्टू
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चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस में हम दो रहते हैं
समय और स्थान के भूगोल को दो कमरों में हमने समेटना चाहा है
बॉंटना चाहा है खुद को हरे-पीले पत्तों में
हमारे छोटे से सुख-दुःख हैं हम झगड़ते हैं, प्यार करते हैं
दूर-सुदूर देशों तक हमारे धागे पहुंचते हैं स्पंदित होंठों तक आक्रोश भरे दिन-रात आ बिखरते हैं चार सौ सोलह, सेक्टर अड़तीस के दो कमरों में
हमारे आस्मान में एक चॉंद उगता है जिसे बॉंट देते हैं हम लोगों में कभी किसी तारे को अपनी ऑंखों में दबोच उतार लाते हैं सीने तक फिर छोड़ देते हैं कुछ क्षणों बाद
डरते हैं खो न जायें तारे कमरे तो दो ही हैं कहॉं छिपायें? </poem>