भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुद से ही बाजी लगी है / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
Gautam rajrishi (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:44, 28 सितम्बर 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खुद से ही बाजी लगी है
हाय कैसी जिंदगी है

जब रिवाजें तोड़ता हूँ
घेरे क्यों बेचारगी है

करवटों में बीती रातें
इश्क ने दी पेशगी है

रोया जब तन्हा वो तकिया
रात भर चादर जगी है

अर्थ शब्दों का जो समझो
दोस्ती माने ठगी है

दर-ब-दर भटके हवा क्यूं
मौसमे-आवारगी है

कत्ल कर के मुस्कुराये
क्या कहें क्या सादगी है

{मासिक वर्तमान साहित्य, अगस्त 2009}