भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह / विजय कुमार पंत
Kavita Kosh से
Abha Khetarpal (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 20 जून 2010 का अवतरण
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
पवन हो मदमस्त बहकी
मेघ मन व्याकुल हुआ है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
एक हलचल है नदी में
रश्मियों ने यूँ छुआ है
कुसुम अली से पूछते है
जाग तुझको क्या हुआ है
नयन मलती हर कलि का
सुबह ने स्वागत किया है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है
पंछियों के स्वर सुनहरे
हर्ष स्वागत कर रहे है..
मंदिरों की घंटियों से
मन्त्र झर-झर झर रहे है
कूक कोयल की सुनी और
झूमने लगता जिया है
क्षितिज पर देखो धरा ने
गगन को चुम्बन दिया है