एक नदी यह भी / मनोज श्रीवास्तव
एक नदी यह भी
जिन राजमार्गों, राजवीथियों पर
सभ्यताओं के फलने-फूलने पर
सूर्य पूरे दिन उत्सव मनाता था
चन्द्रमा अलमस्त
चांदनी का सरगम बजाता था,
वहां लोग गुत्थम-गुत्थ बह रहे हैं
तरल बहते लोगों से संडाध उठ रही है
संस्कृतियों के कल्पतरुओं का कहीं अता-पता नहीं है,
आखिर, जिन तरुओं की जड़ों में दीमक लग गए हों
उनके बचने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
दु:ख है की उनके अवशेष
नवपतन और नवविनाश के खाद भी न बन पाए
उन विषैले, पुष्पहीन-फलहीन पौधों के
जिन्हें छूना तो घातक है ही
देखने-सूंघने भर से कांटे चुभ जाते हैं
लोग-बाग़ बहते रहने के उन्माद में
भूल जाते हैं कि
वे पर्वतीय सडकों से उतरकर
सैकड़ों-हजारों गज नीचे
सचमुच, मिथक बन चुकी नदियों के
कंकाल में बहने लगे हैं