प्रिये, आओ तुम! / मनोज श्रीवास्तव
प्रिये, आओ तुम!
प्रिये
आओ तुम
उड़ाती हंसिनी तन,
उस बियांबे शहर से
जहां उड़ते है
विकल कौवे
धुओं के
आ भी जाओ
मन चपल है
भीड़ की इस गुमसुमाहट में,
जब बजाती तालियां हैं
गाडियां औ' सड़क,
होठ से तुम बुदाबुदाओ
गीत गांवों के
थाम लो तुम
वहाशियाए आदतों के
ये कटीले वन,
रेंगते हैं जहां ब्याले
दमा-टी.बी. के
प्रिये, बैठो
यहां तुम
बन औषधि-संजीवनी
प्रिये, भागो मत यहां से
कान को भींचे हुए
रखे पैरों को सिर पर,
आँख को मूंदे हुए
धरे होठों पर गिरिवर,
मैं जीऊँगा किस तरह
ओढ़े हुए
शहरों का जंगल,
कांच के ये आदमी
पारदर्शी अंटियों में
लिए फिरते हैं जहां
इम्पोर्टिड खंझर
प्रिये
आओ तुम
मेरे अस्तित्त्व का बन
ढाल-कम्बल
सर्द फौव्वारे जहां
बारूद के
हैं फट रहे
इस ओर
औ' उस ओर,
धज्जियां उड़ रहीं
अंगों की
बचा क्या शेष है
इस हाथ में
भेजा पकड़
हूँ लिए फिरता
दर-बदर,
आखिर, कहां तक साथ देगा
रीढ़ का डंडा
जिसे थामे हुए
इस हाथ से
उस हाथ से
हूँ लुढ़कता-लिसढता मैं
जा रहा
या,आ रहा
इस काल रेखा पर
कुछ नहीं मालूम
प्रिये
आओ तुम!