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कवियों से कह दो / मनोज श्रीवास्तव
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कवियों से कह दो
तथ्यात्मकता इतनी तरल हो चुकी है
कि उन्हें भावों में समेटना
और समेटकर
बतौर ठोस आदर्श
बांचना-आलापना
दूभर हो गया है
इस तरल दौर में
कवियों से कह दो
कि वे चाट-मसाले
की गुमटियां लगा लें
नाटककारों से कह दो
कि वे कोई और धंधा कर लें
यानी, पान-मसाला बेचें
या, पाठशालाओं के गेट पर चूरन
उपन्यासकारों से नहीं कहूंगा
के वे आत्महत्या कर लें,
लिहाजा, वे गाँवों के
खेत-खलिहानों में
खेतिहर मज़दूर बन जाएं
और अपने बच्चों से कह दें
कि वे उन बच्चों से
लंगोटिया याराना निभाएं
जिनमें शनै: शनै:
छात्र-नेता, गुंडा, डान और नेता
बनने के अच्छे लच्छन मौजूद हैं.