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बीज की तरह / नंद भारद्वाज
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एक बरती हुई दिनचर्या अब
छूट गई है आंख से बाहर
उतर रही है धीरे धीरे
आसमान से गर्द
दूर तक दिखने लगा है
रेत का विस्तार
उड़ान की तैयारी से पूर्व
पंछी जैसे दरख्तों की डाल पर!
जानता हूं, ज्वार उतरने के साथ
यहीं किनारे पर
छूट जाएंगी कश्तियां
शंख-घोंघे-सीपियों के खोल
अवशेषों में अब कहां जीवन ?
जीवनदायी हवाएं बहती हैं
आदिम बस्तियों के बीच
उन्हीं के सहवास में रचने का
अपना सुख
निरापद हरियाली की छांव में!
इससे पहले कि अंधेरा आकर
ढंक ले फलक तक फैले
दीठ का विस्तार,
मुझे पानी और मिट्टी के बीच
एक बीज की तरह
बने रहना है पृथ्वी की कोख में!